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1. नन्द भारद्िाज: संथक ृ तत, जनसंचार और बाजार, सामातयक प्रकाशन, नई


                       हदकली, सं. 2007, पृ. 54

                   2. रतन क ु मार पाण्डेय: मीडडया का यिाित, िार्ी प्रकाशन, नई हदकली, सं.

                       2008, पृ. 21


                   3. सुिीश पचौरी: मीडडया, समकालीन सांथक ृ ततक विमशत, िार्ी प्रकाशन, नई

                       हदकली, सं.2011, पृ. 243

                   4. मिुकर  लेले:  भारत  में  जनसंचार  और  प्रसारर्  मीडडया,  रािाक ृ ष्र्


                       प्रकाशन, नई हदकली, सं.2011, पृ. 191

                   5. रतन क ु मार पाण्डेय: मीडडया का यिाित, िार्ी प्रकाशन, नई हदकली, सं.

                       2008, पृ. 22


                   6. नन्द भारद्िाज: संथक ृ तत, जनसंचार और बाजार, सामातयक प्रकाशन, नई

                       हदकली, सं. 2007, पृ. 55


                                जनभाषा हहन्दी को िमथष बनाने की चुनौती



                                                                -डॉ0 सुशीलक ु मार पाण्डेय ‘साहहत्येन्दु’


                       भाषा अपनत्ि की संिाहहका होती है। अपनी भाषा की बात क ु छ और ही

               होती है। अपनी भाषा के  प्रतत लगाि होना ही चाहहए। गााँिीजी का किन है कक-

               ‘‘ककसी भाषा के  शब्दों को अपना लेने में शमत की कोई बात नहीं है। शमत तो

               तब है, जब हम अपनी भाषा के  प्रचमलत शब्दों को न जानने के  कारर् दूसरी

               भाषा के  शब्दों का प्रयोग करें। जैसे घर शब्द को भुलाकर ‘हाउस’ कहें, माता को

               ‘मदर’  कहें,  वपता  को  ‘र्ादर’  कहें,  पतत  को  ‘हसबैंड’  और  पत्नी  को  ‘िाइर्’

               कहें।’’1



                       अपनी भाषा में जो गौरि-बोि और आत्म विश्िास है िह दूसरी भाषा में

               नहीं है। अपनी मााँ ककतनी क ु ऱूप क्यों न हो ? िह अपने बच्चे के  मलए सुन्दर

               होती है, क्योंकक िही अपने बच्चे को बोलना मसखलाती है। ‘‘जो लोग र्ारसी के

               शब्दों को इथलामी संथक ृ तत के  अमभन्न अंग समझकर अपनी भाषा में सजाते हैं,
               िे अक्सर अनजान में काकर्र शब्दों को ही यह सम्मान देते हैं। जब िे हफ्ते


               को उच्च शब्द और सप्त या सात को नीच शब्द समझते हैं तब िे यह मसधॎध
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