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दलपतराय जैसे गुजराती कवियों ने भी अपनी कविताओं के माध्यम से हहंदी की
महत्ता को थिीकार कर राष्रीय एकता के थिर का कारिां आगे बढाया।
राजभाषा का दजात ममलने पूित भी हहंदी को देश के कोने-कोने में जानने,
समझने और बोलने िाले िे तभी तो हहंदी को राष्रभाषा बनाए जाने की मांग
सितप्रिम दक्षक्षर् भारत के सी. राजगोपालाचत ने उठाई। भले ही देश के सभी
लोग हहंदी न जानते हों, व्याकरर् को भूला करते हों, अशुधॎध हहंदी बोलते हों
परंतु बोलते कर्र भी हहंदी ही हैं और उसी में अपने भाि व्यक्त करते एिं दूसरों
की बात समझते हैं। हहंदी बोलने, पढने, मलखने में असमित अहहंदी भाषी प्रांतों
के लोग हहंदी में टीिी सीररयल, कर्कम, गीत संगीत के दीिाने हैं। िाथति में
यह सितग्राह्यता ही हहंदी की एकता की पररचायक है। सहज और सरल हहंदी की
इस प्रक ृ तत ने ही उसे इतना व्यापक ऱूप हदया है। िह देश के विशेष िगत या
प्रांत के लोगों की ही भाषा न होकर कोहट-कोहट कं ठों का थिर और गले का हार
है। हहंदी के सूत्र के सहारे कोई भी व्यस्क्त देश के एक कोने से चलकर दूसरे
कोने तक जाकर ककसी भी जन से संिाद थिावपत कर सकता है। देश में र्ै ली
हई अनेक भाषाओं और संथक ृ ततयों के बीच यहद भारतीय जीिन की उदात्तता
ु
एिं एकात्मकता ककसी एक भाषा में हदखाई देती है तो िह राष्रभाषा हहंदी में
ही है।
थितंत्रता पूित हहंदी के ही माध्यम से भारत के अनेक संतों, सुिारकों,
मनीवषयों और नेताओं ने अपने विचारों का प्रसार एिं प्रचार ककया िा। अपनी
दूरदमशतता के कारर् उन्होंने ऐसी ही भाषा को अपनी भाि-िारा के प्रचार का
सािन बनाया िा, जो देश के सभी भूभागों के अधिकांश जन-समुदाय को एकता
के सूत्र में वपरो सकती िी, और िह भाषा हहन्दी िी। यही कारर् िा कक जहां
उत्तर प्रदेश के कबीर, पंजाब के नानक, मसंि के सचल, कश्मीर के लकलद्यद,
बंगाल के बाउल, असम के शंकरदेि आहद संतों ने स्जस सांथक ृ ततक एकता तो
आिार बनाकर अपने काव्य की रचना की िी, िहां दक्षक्षर् के नैनमार और
आलिार आहद संतों की कविता की मूल भािभूमम भी िही िी। इनके संदेश में
कहीं भी भाषागत विघटन का थिर नहीं उभरा िा, बस्कक सभी की रचनाएं
उत्तर से दक्षक्षर् तक और पूरब से पस्श्चम तक समान ऱूप से समादृत होती
िीं। भाषा िही महत्िपूर्त होती है जो लोगों को ‘तोडने’ के बजाय ‘जोडने’ का
संदेश दे और स्जसके माध्यम से प्रेम का मागत प्रशथत हो। इसी पािन भािन से